Thursday, February 9, 2017

यात्रा रानगिर सिद्धपीठ


दोस्‍तों फिर एक दिन फिर एक यात्रा के क्रम में मेरा जाना सागर-रहली मार्ग पर 160 किमी0 दूर रानगिर हुआ। इस स्‍थान के बारे में बहुत किवदन्तियां मौजूद है, रानगिर क्षेत्र को रावण गिरी के नाम से भी जाना जाता है। इस स्थान को लेकर प्रचलित कथाओं व किवदंतियों में इस बात का जिक्र आता है कि रावण ने खुद को और ज्यादा बलशाली बनाने के लिए यहां गौरीदांत की पहाड़ी कंदराओं में घोर तपस्या की थी। स्वामी सियावरदास जी भी रानगिर की गुफाओं में तपस्या करते थे। वे अक्सर बताया करते थे कि इन्हीं गुफाओं में कभी रावण ने भी साधना की। इसी कारण से इसका नाम रावण गिरी पड़ा। धीरे-धीरे इसे रानगिर कहने लगे। मार्कंडेय ऋषि भी यहां धूनी रमा चुके हैं। । एक और किवदंतियों के अनुसार कहा जाता है कि वनवास काल के दौरान अयोध्‍यानरेश रामजी के चरण भी इस भूमि पर पड़े, जिससे इसे रामगिरी के नाम से भी जाना गया। बुंदेलखंड की धरा पर छत्रसाल बुंदेला और धामौनी के मुगल शासक फौजार खलिक के बीच युद्ध भी इसी स्‍थान पर हुआ था। इस युद्ध में छत्रसाल विजयी हुए। जिसके बाद राजा छत्रसाल ने यहां हरसिद्धी के मंदिर का निर्माण कराया। इतिहासकार बताते है 1732 में सागर का रानगिर परगना मराठों की राजधानी था। जिसके शासक पं गोविंदराव थे। 1760 में पं गोविंदराव की मृत्यु के बाद यह स्थल खंडहर में तब्दील हो गया। यहां पर सन 1939 के लगभग हर साल बलि प्रथा और हिंसक कर्मकांड प्रचलित थे। गौरीपर्वत में बहुत सी

 कन्‍दरायें मौजूद है जो कितनी गहरी है इसका पता लगाना तो कठिन है पर मैं स्‍वयं 30 फुट से अधिक गहरी गुफा में उतरा, जिसमें जाने के लिये पत्‍थरों की आढ़ी चिरछी शिलायें व सीढि़ लगी थी, चारों और धनधोर अंधेरा व एक गुफा से दूसरी गुफा में जाने के लिये छोटे-छोटे रास्‍ते मौजूद दिखाई पढ़ रहे थे। टार्च की रोशनी से गुफा में जगमग रोशनी तो बह निकली पर इसी बीच एक चमगादढ़ मेरे पैर से चिपट गयी, उसको हटाकर मैं गुफा से वापस आया। इस स्‍थान पर बौध धर्म के प्रमाण और स्‍तूप बौध धर्म के प्रारम्भिक काल के है। यहां सांची से पहले के स्‍पूत अस्तित्‍व में थे। कुछ शिलाओं के लेख के अनुसार सन 1986 के आस-पास कुछ धर्मावलबियों ने यहां की शिलाओं पर मानजीवन से जुड़ी कल्‍याणकारी बातें ऊंची शिलाओं पर, चट्टानों पर उकेरी। यहां से दूर-दूर तक फैला जंगल का नज़ारा दर्शनीय है, वन्‍यजीवों की बहुलता के कारण यह क्षेत्र अंग्रेजों व शिकारियों की पसन्‍दीदा जगहों में रहा। देहार नदी के किनारे बरबस ही मनमोह लेते है पर मैं यहां से सूरज ढलने के पहले सुरक्षित स्‍थान तक पहुंचना चाहता हूं, तो चल पड़ा अपना साजोसामान समेट कर, कुछ यादों को संजोकर फिर एक नये स्‍थल की खोज में ....

https://www.facebook.com/firozdiamond # raangir # sagar # rehli # रानगिर # रहली # सागर : दिनांक 05.02.2017

 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 

Saturday, February 4, 2017

रहली

बुन्‍देलखण्‍ड का गौरवशाली इतिहास यहां के ज़र्रे-ज़र्रे में रचा-बसा है, बात चाहे पुरातात्‍विक महत्‍व के स्‍थलों की हो, सांस्‍कृतिक विरासतों की, धार्मिक स्‍थलों की या फिर विशाल किलों की, जो भी है वो बहुत कुछ कहता है। आज रविवार है .....या तो ये दिन मेरा इन्‍तज़ार करता है या फिर में रविवार का इन्‍तज़ार करता हूं, पर जो भी हो यह दिन कुछ खास ही है मेरे लिये। सिर्फ इसलिये नहीं कि मैं धूमक्‍कड़ी करने निकल पड़ूगा वरन इसलिये भी कि मैं जो देख
रहा हूं वो बहुत कुछ कहता है, सीखता भी है और बताता भी है, ये शायद मुझे खींच रहे है, बुला रहे है मैं भी खींचा चला जाता हूं। ललितपुर से सिर्फ 160 किमी0 दूर है रहली। वैसे में भी इस स्‍थान के बारे में कोई जानकारी नहीं रखता था पर कुछ दिन पूर्व जब में आबचंद की गुफाओं को देखने गया तो किसी से यहां की भी जानकारी मिली तब से यह स्‍थान लिस्‍ट में बना हुआ था तो अब जाकर यहां पहुंच पाया। पर ये क्‍या दिन काफी निकल आया है और वो भी सर्दियों का दिन जो जल्‍दी ही ढल जाता है, आज मेरी सुबह तो समय से हुई पर कुछ लोगों से मिलने-जुलने में काफी वक्‍त लगा, फिर जब तैयार हो पाया तब घड़ी में 11.50 का समय हो रहा था। दूरी के हिसाब से दिन का ढलना ज्‍यादा बाकी नहीं था, फिर भी दिल की मानमनऊअल के बाद चलने का निर्णय कर घर से निकला तब हाईवे पर पहुंचते पहुंचते 12.10 हो गये यहां से अगले 120 किमी0 की दूरी तय करने में पल्‍सर 220 से सिर्फ 1.10 मिनिट ही लगे। यहां से सुरखी होते हुये में रंगिर गया, जहां पर मैंने कुछ 3 घंटे से कुछ अधिक समय व्‍यतीत किया जहां का विवरण में फिर कभी आप से साझा करूंगा पर रंगिर से रहली 22 किमी0 की दूरी पर है यहां पहुंचते पहुंचते सांय हो गयी यहां के ऐतिहासिक स्‍थलों तक पहुंचना और देखने के लिये वक्‍त काफी कम बचा था पर अच्‍छी सड़कों ने मेरा रास्‍ता आसान कर दिया। यहां सबसे पहले में यहां के किले पर पहुंचा जो काफी जीर्णशीर्ण हो चुका है, पर धरोहर तो धरोहर ही होती है, सरिता – संगम तट पर स्थित होने के कारण इसके महत्व और अधिक बढ जाता है| ऐसा अनुमान है की इस बस्ती के निर्माताओ ने यह किला अनेक राजसत्ताओं के अधीन रहा | ऐतिहासिक तथ्यों से पता चलता है की चंदेलो को मुसलमानों ने तेरहवी सदी के अंत में परास्त कर शक्तिहीन बना दिया और सागर में भी मुस्लिम राज्य स्थापित हुआ| सन 1356 में दुलचीपुर में एक सती स्मारक में लगे पत्थर (अभिलेख) में सुल्तान फिरोजशाह के राज्य का उल्लेख है| फिरोज की मृत्यु 1388 ई. में हुई और साम्राज्य में स्थानीय लोगो ने सत्ता पर अपना अधिकार स्थापित कर लिया। गोंड वंश का प्रतापी शासक संग्राहशाह था उसने 52 दुर्गो पर अपना
अधिकार स्थापित किया था | संग्रामशाह ने 50 वर्ष राज्य किया तथा 1530 में उसकी मृत्यु हुई अर्थात 15 वीं सदी में अहीरों ने ही इस किले का निर्माण कराया था और अहिरो से यह दुर्ग गोंडो के अधीन हो गया | सत्ता का परिवर्तन अनवरत जारी रहा, सत्ता परिवर्तन के ही इसी क्रम में 1732 में छत्रसाल से पारपत बुन्देलखण्ड के सागर क्षेत्र पर पेशवा बाजीराव की सत्ता की स्थापना हुई | अतः रहली का किला मराठा के अधीन हो गया | 1818 में रहली की मराठा सत्ता काे अपने हाथों में करने बाली रानी लक्ष्मीबाई थी और एक बार रहली किला अंग्रेजो के अधीन हो गया | अंग्रेजो से इस किले को छीनने का महत्वपूर्ण प्रयास 1857 की ग़दर के समय राजा बखतबली शाह के सेनापति बोधनदोंआ ने अंग्रेजों को पूर्ण रूप से नष्ट करने का बीड़ा उठाया और उसने गढ़ाकोटा रहली, गौरझामर, तथा देवरी पर अधिकार करने का जबरदस्त प्रत्यन किया जिसमें रहली को छोड़ कर शेष सभी स्थानों पर विजय प्राप्त हुई। रहली नगर के दक्षिण में सुनार नदी के पश्चिम घाट पर ऐतिहासिक सूर्य मंदिर के पास एक किलोमीटर वर्गक्षेत्र में यह किला फेला हुआ है लेकिन इसका मुख्य द्वार उत्तर दिशा में है जी की काफी विशाल है | यह भूतल से लगभग 15 फुट की ऊंचाई पर स्थित है | ऐतिहासिक किलो में जिन भवनों को देखा जाना चाहिए बो अब खंडहर स्वरुप दिखाई देने लगे है आज भी इस किले के कुछ भवन बचे हुए है जिनको हम देख सकते है किले के पश्चिम भाग में एक बाबड़ी अभी भी सुरक्षित है जिसमे हमेशा जल भरा रहता है, किले के चारो और चार विशाल बुर्जे बनी है जिनमे सैनिकों के बेठने की तथा बन्‍दुक चलाने के लिए मारें बनी हुई है। पर फिलहाल जर्जर हालत का तानाबाना कब तक वक्‍त के थपेड़े झेल पायेगा यह कहना मुश्किल है। यहां से कुछ दूरी पर नदी के तट की और सूर्य मंदिर स्‍थापित है यह किसने बनवाया और कब ये तो कहना मुश्किल है पर सम्‍भवत: 10 वी सदी का प्रतीत होता है, यह उन मंदिरों में शामिल है जो अब भी दर्शनीय है। यहां मंदिर के गर्भ ग्रह में सूर्य की प्रतिमा




प्रतिष्ठित है जो कमल पुष्‍प पर खड़े हुये है। यहां पर ही नागयुग्‍म की बहुत सुन्‍दर प्रतिमा स्‍थापित है जो मंदिर की बाहरी दिवार पर जड़ी हुई है साथ ही निचले हिस्‍से में एक बिच्‍छु भी बना हुआ है। मंदिर के सामने नदी के घाट पर बैठ कर श्रद्धा में डूबे लोगों का उत्‍साह देखते ही बनता है। रहली में 1857 की क्रान्ति के समय क्रान्‍तिकारियों की गतिविधियों व रूकने के स्‍थान का भी उल्‍लेख मिलता है। एक छोटा सा कस्‍बा कितना कुछ समेटे हुये है देखकर बहुत अच्‍छा लगा। वक्‍त है रूकता नहीं है यहां से वापसी के सफर पर चलते हुये घड़ी की सुईयां 7.35 बजा रही है, पर मौसम साफ है यह मेरे लिये अच्‍छी बात है, आसमान में एक तारा जो पश्चिम की ओर निकला हुआ है बहुत ही चमकदार दिख रहा है पूरे आसमान में इसका तेज देखते ही बन रहा है, अच्‍छा ही है कोई साथी तो मिला जिससे रास्‍ते भर बात होती जायेगी। यह तारा मुझे मेरे शहर तक कब ले आया बस पता ही नहीं चला। सर्दी के मदृेनज़र मेरे इन्‍तज़ाम ने मुझे रास्‍तें में काफी राहत दी, कई जगह रूक कर चाय पी, ढाबे पे खाना खाया फिर रूकते रूकाते 10.20 पर घर पहु्ंचा। आज के दिन ने और लगभग मोटर साईकिल पर 360 किमी0 की यात्रा ने थोड़ा अधिक मजबूत बना दिया। खैर उम्‍मीद है मेरे सफर के वृतान्‍त का आप भी भरपूर आन्‍नद लेंगे। तो फिर जल्‍द ही मिलेंगे आज के अवशेष रहे हिस्‍से के साथ .........आपका डायमंड
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