
दोस्तों फिर एक दिन फिर एक यात्रा के क्रम में मेरा जाना सागर-रहली मार्ग पर 160 किमी0 दूर रानगिर हुआ। इस स्थान के बारे में बहुत किवदन्तियां मौजूद है, रानगिर क्षेत्र को रावण गिरी के नाम से भी जाना जाता है। इस स्थान को लेकर प्रचलित कथाओं व किवदंतियों में इस बात का जिक्र आता है कि रावण ने खुद को और ज्यादा बलशाली बनाने के लिए यहां गौरीदांत की पहाड़ी कंदराओं में घोर तपस्या की थी। स्वामी सियावरदास जी भी रानगिर की गुफाओं में तपस्या करते थे। वे अक्सर बताया करते थे कि इन्हीं गुफाओं में कभी रावण ने भी साधना की। इसी कारण से इसका नाम रावण गिरी पड़ा। धीरे-धीरे इसे रानगिर कहने लगे। मार्कंडेय ऋषि भी यहां धूनी रमा चुके हैं। । एक और किवदंतियों के अनुसार कहा जाता है कि वनवास काल के दौरान अयोध्यानरेश रामजी के चरण भी इस भूमि पर पड़े, जिससे इसे रामगिरी के नाम से भी जाना गया। बुंदेलखंड की धरा पर छत्रसाल बुंदेला और धामौनी के मुगल शासक फौजार खलिक के बीच युद्ध भी इसी स्थान पर हुआ था। इस युद्ध में छत्रसाल विजयी हुए। जिसके बाद राजा छत्रसाल ने यहां हरसिद्धी के मंदिर का निर्माण कराया। इतिहासकार बताते है 1732 में सागर का रानगिर परगना मराठों की राजधानी था। जिसके शासक पं गोविंदराव थे। 1760 में पं गोविंदराव की मृत्यु के बाद यह स्थल खंडहर में तब्दील हो गया। यहां पर सन 1939 के लगभग हर साल बलि प्रथा और हिंसक कर्मकांड प्रचलित थे। गौरीपर्वत में बहुत सी
कन्दरायें मौजूद है जो कितनी गहरी है इसका पता लगाना तो कठिन है पर मैं स्वयं 30 फुट से अधिक गहरी गुफा में उतरा, जिसमें जाने के लिये पत्थरों की आढ़ी चिरछी शिलायें व सीढि़ लगी थी, चारों और धनधोर अंधेरा व एक गुफा से दूसरी गुफा में जाने के लिये छोटे-छोटे रास्ते मौजूद दिखाई पढ़ रहे थे। टार्च की रोशनी से गुफा में जगमग रोशनी तो बह निकली पर इसी बीच एक चमगादढ़ मेरे पैर से चिपट गयी, उसको हटाकर मैं गुफा से वापस आया। इस स्थान पर बौध धर्म के प्रमाण और स्तूप बौध धर्म के प्रारम्भिक काल के है। यहां सांची से पहले के स्पूत अस्तित्व में थे। कुछ शिलाओं के लेख के अनुसार सन 1986 के आस-पास कुछ धर्मावलबियों ने यहां की शिलाओं पर मानजीवन से जुड़ी कल्याणकारी बातें ऊंची शिलाओं पर, चट्टानों पर उकेरी। यहां से दूर-दूर तक फैला जंगल का नज़ारा दर्शनीय है, वन्यजीवों की बहुलता के कारण यह क्षेत्र अंग्रेजों व शिकारियों की पसन्दीदा जगहों में रहा। देहार नदी के किनारे बरबस ही मनमोह लेते है पर मैं यहां से सूरज ढलने के पहले सुरक्षित स्थान तक पहुंचना चाहता हूं, तो चल पड़ा अपना साजोसामान समेट कर, कुछ यादों को संजोकर फिर एक नये स्थल की खोज में ....

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